एक सन्त थे जो मिलता खाने में संतुष्ट रहते थे एक बार उन्हें मुट्ठी भर चावल मिले इतने में उनके शिष्य आए सन्त ने कहा मेरी मुट्ठी पर चावल है तो एक शिष्य ने कहा इतने से चावल से क्या होता है हम लोग तो भूखे रहेंगे तब संत ने कहा नकारात्मक क्यो सोचना मन जैसा कहेगा वैसा ही काम करेगा यदि अपने मन को भगवान को भोग लगाकर खाओगे तो इससे पेट भी भर जाएगे तब संत ने थोड़े थोड़े चावल सभी शिष्यों को बाट दिए लेकिन खुद कुछ नही खाया तब एक शिष्य ने कहा गुरुजी आपने सभी को चावल दे दिया लेकिन आपने कुछ नही खाया तब संत ने कह मेरी भूख तो ईश्वर से जुड़ी थी मेने उनका ध्यान किया मेरा पेट भर गया यह सुनकर शिष्य को दुख हुआ अपनी गलती का पछतावा जो मिले उसमे संतुष्ट रहना चाहिए यदि वह चावल भी मुठ्ठी भर नही मिलते तो क्या होता यही सीख है जिसने दिया उसे अर्पण करके खाना चाहिये देना वाला भी ईश्वर ही होता है लेने वाला भी वही।
एक सन्त थे जो मिलता खाने में संतुष्ट रहते थे एक बार उन्हें मुट्ठी भर चावल